Pages

Sunday, July 19, 2015

बारिश की बूँदें

बैठी थी खुले आसमां तले,
सोच रही थी कुछ आँखें मूंदे-मूंदे
ना जाने कब घिर आए बादल,
और भिगो गई मुझे बारिश की बूँदें

जब भी मिली मुझसे,
दर्द देकर चलती बनीं
इन बारिश की बूंदों से तो,
मेरी कभी बनके भी नहीं बनी
जब भी चाहा थाम लूँ इनको,
बाहें जो फैलाई ख़ुशी से
जल गई हथेलियाँ बस,
आहें सिसकती रहीं

ग़लती बारिश की बूंदों की है,
या फिर मेरे मिज़ाज की
ये तय कर पाना तो शायद,
खुद ऊपर वाले के बस में भी नहीं
गर ऐसा मुमकिन हो पाता,
तो समां कुछ और ही होता
हल हो जाती कितनी ही मुश्किलें,
ना बाकी कोई इम्तिहां होता

बारिश और मेरे बीच में फिर,
एक प्यारा सा रिश्ता होता
फिर ना ये तन्हाई होती,
और ना ये सूनापन होता
पर ये तो बस एक सपना है,
जब तक है आँखों में, अपना है

जो चला गया एक बार तो,
फिर लौटकर ना आएगा
पीछे बस एक यादों का,
कारवां रह जाएगा

और रह जाएंगी तो बस,
ये बारिश की बूँदें
मुझे भिगोने फिर आएंगी,
ये बारिश की बूँदें

No comments:

Post a Comment