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Tuesday, October 20, 2015

तुम तो गिरगिट हो यार!

जब भी मिलती हूँ, मैं तुमसे
लगती हो हर बार नई
एक नया ही रूप-रंग 
दिखता है, हर बार तुम्हारा
कुछ ना कुछ
होता है जिसमें
पहले से बिल्कुल जुदा।

सोच में पड़ जाती हूँ, तब मैं
कि आख़िर, क्या हो तुम?
वो, जो पहले देखी थी मैंने
या फिर वो
जो आज दिखती हो तुम।

लोग तो कहते हैं, ज़िंदगी तुम्हें
पर मुझसे तो
पूछके देखो एक बार
मैं तो यही कहूँगी
कुछ और नहीं
तुम तो गिरगिट हो यार!

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