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Wednesday, January 22, 2014

तन्हाई का पहरा है

ये लम्हा भी बीत गया,
और रात अनोखी आ गई
चारों तरफ सन्नाटा है,
और ख़ामोशी सी छा गई

पर दिल के किसी इक कोने से,
फ़िर देता है आवाज़ कोई
अरमानों की उस बस्ती में,
वहाँ छेड़ता है फ़िर साज़ कोई

आवाज़ ये अनजानी सी है,
पर पहचाना सा चेहरा है
जिस गली में अब हम रहते हैं,
वहाँ तन्हाई का पहरा है

तन्हा ही सही ज़िंदा तो है हम,
जीने के लिए इक वज़ह तो है
वरना अपनों के होते भी,
दुनिया में कोई अकेला है

उसकी हर आह पे जाने क्यूँ ,
दिल तड़प-तड़प रह जाता है
वो हाथ जो उसकी ओर बढ़ा,
ना जाने क्यूँ थम जाता है

ख़ामोश ज़ुबां है फिर भी क्यूँ ,
ये आँखें बोला करती हैं
हम लाख छुपायें ये लेकिन,
हर दर्द बयां कर देती हैं

अब किससे कहें और कैसे कहें,
अपने दिल के जज़बातों को,
तन्हाई से पूछा करते हैं,
क्या देखा है तुमने बहारों को

जब-जब कोई तारा टूटा,
बस एक दुआ हमने माँगी
उसकी हर चाहत पूरी हो,
हमने तो यही मन्नत माँगी

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